ढाका | उत्तर-पूर्वी बांग्लादेश का हाऊर इलाका साल के 8 महीने बाढ़ के पानी से घिरा रहता है। ऐसे में सभी जरूरी काम ठप हो जाते हैं। इसके लिए लोग पहले ही जरूरी चीजें जुटा लेते हैं। इनमें सबसे ज्यादा नुकसान होता है स्कूली बच्चों का। लिहाजा सरकार और ब्राक, शिधुलाई स्वनिर्वार संगस्था जैसे सामाजिक संगठनों ने मिलकर तय किया कि अगर बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे, तो स्कूल उन तक पहुंचेंगे। इसका जरिया बोट स्कूल को बनाया गया। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश के स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़कर 97% हो गई है। ये तब हुआ है, जब इलाके की 1% से भी कम आबादी ने प्राथमिक शिक्षा पूरी की है। इस क्षेत्र में कोमिला, पबना, फरीदपुर, सुनामगंज, हाबीगंज, ढाका और सिलहट जिलों के ज्यादातर इलाके आते हैं। हाऊर एक सिलहटी शब्द है, जो संस्कृत शब्द सागर या समुद्र से लिया गया है।
2012 में एक स्कूल बोट से शुरू हुई यह पहल आज 500 से ज्यादा बोट स्कूल तक पहुंच गई है और 14,000 से ज्यादा बच्चे इनमें पढ़ाई कर रहे हैं। सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि 8 साल में 80 हजार से ज्यादा बच्चे इन स्कूलों से पढ़ाई पूरी कर चुके हैं और दूसरे शहरों के स्कूल-कॉलेजों में आगे की पढ़ाई कर रहे हैं। इनमें से कई तो राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाएं पास कर और स्कॉलरशिप हासिल कर पढ़ाई कर रहे हैं। जो बच्चे दिन के वक्त स्कूल नहीं जा पाते, उन्हें रात में पढ़ाया जाता है। इतना ही नहीं, यहां महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिलाई, कढ़ाई और अन्य उत्पाद बनाना भी सिखाया जाता है। इन बोट पर रोशनी के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है।
- 100%शिक्षक महिलाएं हैं इन स्कूलों में। हर इलाके में उसी समुदाय की शिक्षक नियुक्त की गई है, ताकि जवाबदेही बनी रहे। वे यहीं से पढ़ी हैं और इलाकों में रोल मॉडल भी हैं।
- 97%हो गई बांग्लादेश के स्कूलों में 8 साल में छात्रों की उपस्थिति, इनमें लड़कियां ज्यादा। इनमें से कई लड़कियों को राष्ट्रीय स्तर की स्कॉलरशिप भी मिल रही है।
- 19 लाखहै हाऊर इलाके की आबादी, इनमें 25% से ज्यादा आबादी 15 साल तक के बच्चों की। कटोरे के आकार का यह इलाका करीब 25 हजार वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ है।
1% से भी कम लोग साक्षर, पर 100% छात्र पढ़ाई पूरी कर रहे
इलाके की 1% से भी कम आबादी साक्षर है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इन बोट स्कूलों में पढ़े सभी बच्चों ने प्राथमिक शिक्षा पूरी की है। इनमें 10 हजार से ज्यादा छात्र तो राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा पास कर अच्छे स्कूल, कॉलेजों में पढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, वे अब अपने माता-पिता को भी पढ़ाई की अहमियत बताते हुए साक्षर बना रहे हैं। 44 साल की आशिया कहती हैं- मैं और मेरे पति पढ़े-लिखे नहीं हैं। अब हमारी बेटी हमें पढ़ाती है। उसने नाम लिखना सिखा दिया है, घर खर्च चलाने के लिए गिनती और हिसाब-किताब भी सिखा रही है। हमें गर्व है कि हमारी बेटियां अपनी मांओं को शिक्षित कर रही हैं।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
No comments:
Post a Comment